Sunday, 25 March 2012

"होली" .....

होली के रंग फीके पड़ गए
अब नहीं जचता कोई फागुन,
मुझको बतला के तो जाता
क्या करूँ में तेरे बिन,
तरस गए यह गाल मेरे
तेरे हाथो के लिए,
अब तो मिलजा तू इस होली पर मुझको रंगने के लिए,

तन्हाई में जिए बहुत हैं,
पर तनहा होली खेलें कैसें,
दर्द का मेरे एहसास करले,
खेल संग होली मेरे जीने के लिए,
अब तो मिलजा तू इस होली पर मुझको रंगने के लिए,

अब कोई होली की टोली में,
नाचने का मन नहीं करता है,
नशा भांग का चड़ता नहीं है
तेरे दो नैनो के बिन,
मुझमे सुरूर चढाने को आ,
नशीला मुझको करने के लिए,
अब तो मिलजा तू इस होली पर मुझको रंगने के लिए,

आ की तुझको बाँहों में फिर से में यूँ क़ैद करूँ,
तेरे गोरे गालों को अपने हाथो से रंगूँ,
खो बेठुं सब सुध बुध अपनी
बस तुझको में प्यार करूँ,
फागुन की मस्ती में पागल होकर तुझसे प्यार करूँ,
समझ ले मेरे एहसासों की पावन सी कहानी को,
फिर चूम ले मेरे गलों को
मस्ती में जीने के लिए,
अब तो मिलजा तू इस होली पर मुझको रंगने के लिए.......

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