Monday, 23 January 2012

इन निगाहों को मोह्हबत का राज़ छुपाना नहीं आता है......

दूर तेरी यादों से जब तन्हाई में बेठता हूँ,
कतरा तेरी याद का अश्क बनकर चला आता है,

रोती तो तू भी होगी मुझसे जुदा होकर,
तभी तो मेरे अश्कों पर नाम लिखा तेरा आता है,

गर ज़रा भी इल्म नहीं तुझे मेरे ठिकाने का,
फिर क्यों तेरे नाम का ख़त रोज मेरे दर पर आता है,

हर दफे आंसूं बहाकर कहा मोह्हबत नहीं तुमसे,
बहुत ही खूबसूरत सा झूठ तुम्हे बोलना आता है,

निगाहों से निगाहों को मिलने न देना भूले से भी,
इन निगाहों को मोह्हबत का राज़ छुपाना नहीं आता है,

रख लबो पर नाम "अंकित" और हाथो में तस्बीह (माला),
फिर कहती हो की मुझे इज़हार-ए-मोह्हबत करना नहीं आता है........   

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