Monday, 16 January 2012

तभी वो किस्से ज़माने के, एक माँ की तरह समझाती थी..........

आँखें तो उसकी भी नाम हो जाती थी,
जब कभी बात जुदाई की आती थी,

आखिर कैसे कह दूँ में उसे बेवफा,
वो फूल सजदे में, मेरे ही नाम के चढ़ाती थी,

मजबूरियों से हारी है वो और कुछ भी नहीं,
तभी वो किस्से ज़माने के, एक माँ की तरह समझाती थी,

कैसे मान लूँ की उसे अब मेरा चेहरा पसंद नहीं,
जो मुझे कभी अँधेरे में भी पहचान जाती थी,

चाहत उसकी भी थी मुझे हमसफ़र बनाने की,
जब कभी कड़कती थी बिजली, वो मेरी बाँहों में सिमट जाती थी.......... 

No comments:

Post a Comment

About Me

My photo
I am very sensative and emotional type of guy, and i can't live without 3 things my love,poetry,my friends.