बेदर्द ज़माने की सारी रस्मे याद थी उसे,
बस एक रस्म वफ़ा की वो निभाना भूल गया,
क्या गिला, क्या शिकवा, क्या शिकायत उससे करना,
जो अपना नाम मेरे दिल पर लिखकर मिटाना भूल गया,
कभी तन्हाई के साए में याद बनकर चला आता था,
वो शख्स जो आज मेरे घर का पता ठिकाना भूल गया,
यह कौनसे गम का पैमाना खाली किया उसने,
यह कौनसा दर्द है जो वो मुझे देना भूल गया,
मेरे कानो में नहीं गूंजती अब उसकी कोई आवाज,
लगता है वो मुझसे बिछुड़ के खिलखिलाना भूल गया,
हमसे क्या जुदा हुआ की कोई कदरदान नहीं उसका,
यूँ हुआ की वो अब अपने हुस्न पर इतराना भूल गया.......