Friday, 21 October 2011

वो परिंदा था उसका कोई एक आशियाना ही न था...

शिकवा या शिकायत आखिर करते तो क्या करते उससे,
उसने तो मुझे कभी अपना बनाया ही न था,

नजरे दूर तलक जाके तनहा लौट आती थी,
वो परिंदा था उसका कोई एक आशियाना ही न था,

बहुत मुददतों  बाद दिल ने समझा,
जो तेरी चाहत थी, उसने तो तुझे कभी गौर से देखा भी न था,

यह तो दस्तूर है मोह्हबत का अंकित,
की जिसको चाह है दिल से, उसे कभी अपना होना ही न था.......

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