Monday, 29 August 2011

निशानी पहली मोह्हबत की....

यह जो तुम हर वक़्त बात करते हो परिंदों की,
यह निशानी होती है पहली मोह्हबत की,

यह जो हर बार मिसाल देते हो दर्द की तुम अपनी गुफ्तगू में,
यह निशानी होती है पहली मोह्हबत की,

यह जो तुम्हारे लहजे में तक्कलुफ्फ़ और गुस्ताखी नजर आ रही है,
यह निशानी होती है पहली मोह्हबत की,

यह जो तुम निकलते हो मेरी ज़ात में खामियां अक्सर,
यह निशानी होती है पहली मोह्हबत ,

यह जो तुम अक्सर भूल जाते हो चीज़ें रखकर,
यह निशानी होती है पहली मोह्हबत की,

पहली मोह्हबत का खुमार सर से इतनी जल्दी नहीं उतरता,
यह निशानी होती है सच्ची मोह्हबत की...........

Saturday, 20 August 2011

मोह्हबत बयां कर रहा हूँ मैं...

साफ़ लफ्जों में कह दिया उसने, की मुझे तुमसे मोह्हबत नहीं,
पर फिर भी उसके आने का इंतज़ार कर रहा हूँ मैं,

जो वजह थी उसकी मुझसे मोह्हबत न करने की,
वो खामियां अब तक खुद में तलाश रहा हूँ मैं,

या रब अब तो मेरा सजदा कुबूल कर,
एक मुद्दत से तेरे आगे सर झुखा रहा हूँ मैं,

देखता हूँ हर रोज़ उसको एक नए शख्स के साथ,
पर फिर उसे नजर अंदाज़ करते जा रहा हूँ मैं,

उसके लहेजे में साफ़ नजर आती है बेवफाई,
पर फिर भी उससे वफ़ा की उम्मीद कर रहा हूँ मैं,

इससे बड़ी मोह्हबत की मिसाल और क्या होगी,
की वो है बेवफा, पर फिर भी उसे वफादार कहे जा रहा हूँ मैं,

उम्र गुजर गयी, पर सबक न सीखा,
मौत दरवाजे पर है, और आशिकी किये जा रहा हूँ मैं,

मेरे लफ्जों को सिर्फ मेरी ग़ज़ल न समझना,
किसी दीवाने "शायर" की  मोह्हबत बायाँ कर रहा हूँ में........

Sunday, 14 August 2011

यूँ न बेठ फेर के नजरे....

यूँ न बेठ फेर के नजरे मुझसे,
भले मेरा दिल दुखा लेकिन कुछ बात कर..

मोह्हबत नहीं करनी तुझे चाहे न कर,
पर मेरी मोह्हबत में यूँ खामियां तलाश न कर,

पत्ता  जब टूटेगा  शाख से, तो सूख जायेगा,   
इस बात पर ज़रा गौर कर, फिर मुझसे दो पल बात कर,

ज़मी अगर नहीं ज़ज्ब करती पानी को, तो तुझे एक नया दरिया दिखा देते,
कुछ समझ मेरे जज़्बात, फिर मेरे अश्क मेरी आँखों से साफ़ कर,

अब तो तेरा हुस्न भी तुझसे रूठने लगा है,
देख अपनी आँखों के नीचे कभी आईने में,
और फिर उसी गहराई में मुझे तलाश कर,

क्यों किया मुझे तुझसे दूर, तेरे इतना करीब लाके,
की यह नजरे सिर्फ तेरे चेहरे की तलबगार हो गयीं है,
जवाब दे मेरी बात का,या फिर उठा कलम और लिख भेज ख़त में,
की "अंकित" तेरी औकाद नहीं मेरे सामने, तू अब मुझसे प्यार न कर....


Thursday, 11 August 2011

एक गाँव की गुडिया थी...

आँखों में था गहरा काजल, माथे पर छोठी बिंदिया थी,
मैंने देखी थी एक लड़की जो गाँव की गुडिया थी..

सुबह उठे और मंदिर जाती, व्रत भी वो सब करती थी,
माँ बाप के आशीर्वाद  से दिन वो अपना शुरू करती थी,
सर पर थोडा पल्लू लेकर घर से निकलती थी,
न कुछ बोले न कुछ देखे, बस अपनी धुन में चलती थी,
मैंने देखि थी एक लड़की जो गाँव की गुडिया थी..

न लाली न किसी तरह का श्रृंगार वो करती थी,
थोड़ी सी वो सांवली थी पर बहुत निखरती थी,
सुन्दर तो वो बहुत थी लेकिन घमंड न करती थी,
मैंने देखी थी एक लड़की जो गाँव की गुडिया थी..

शरमाती थी घबराती थी, पर नहीं थी इतराती,
अपनी सुन्दर बातों से वो घर को स्वर्ग बनती थी,
न बोले वो ऊँची  बोली न अपनी बातों से वो दिल को धुखाती थी,
सहज अर्थ के शब्दों से वो बात करती थी,
मैंने देखी थी एक लड़की जो गाँव की गुडिया थी..

अब ढूंढता हूँ शेहर में उस की जैसी लड़की को,
पर थक हार के खाली हाथ ही आता हूँ घर में शाम को,
लगता है पूरी दुनिया में यो एक लोती थी,
मैंने देखी थी एक लड़की जो गाँव की गुडिया थी..

Tuesday, 9 August 2011

एक शायरी सिगरेट (CIGGRATE ) के नाम.....

घर से निकलता हूँ किसी की यादों को भुलाने के लिए,
कम्भकत हाथ आ जाती है सिगरेट मेरा दिल जलने के लिए,

फिर क्या  बेठ जाता हूँ उसके साथ अपना गम बाटने,  
सिगरेट के साथ कुछ यादों भरे पल बाटने,
हर एक कश के साथ उसे याद करता हूँ,
सिगरेट के धुंए में उसे तलाश करता हूँ,
हर नए काश पर नयी बातें याद आती है उसकी,
ह़र बार के छोडे  धुंए में तस्वीर नजर आती है उसकी,

इसके सीने में भी मेरी तरह आग है, पर यह तो सबके गम बाटी है,
यह सोचकर मेरी आँख भर आती है,
जो देखता है वो कहता है की, यह तू गलत कर रहा है,
किसी को भुलाने के नाम पर एक धीमा ज़हर ले रहा है,
में कहता हूँ,
की, मोह्हबत के दिए हुए ज़हर को यह धीमा ज़हर ही ख़तम कर रहा है,
तभी तो यह नाचीज़ अपनी जिंदगी ख़ुशी से बसर कर रहा है...

Monday, 8 August 2011

अच्छा नहीं लगता.....

बिना बात के यूँ रूठ जाना अच्छा नहीं लगता,
हर बात पर यूँ चुप रहना अच्छा नहीं लगता,
तुमने जो उठाई है यह हिज्र की दीवार,
क्या इसका टूट जाना अच्छा नहीं लगता,
बात बात पे आंसू बहाने लगते हो,
क्या हमारा मुस्कुराना अच्छा नहीं लगता...

यूँ तो मशरूफ रहते हो दिनभर दूनियादारी में,
क्या  दो पल हमसे गुफ्तगू करना अच्छा नहीं लगता,
रस्म ज़माने की सारी निभाई तुमने,
क्या हमसे वफ़ा की रस्म निभाना अच्छा नहीं लगता....

निगाह झुका लेते हो हमें सामने देखकर,
क्या हमसे नजरे मिलाना अच्छा नहीं लगता,
यादें  तुम्हारी  सोने नहीं देती है रात भर,
क्या हमारा तुम्हे अपने  सपनो में देखना भी अच्छा नहीं लगता...

हर बार लहर बनकर तेरी यादें मेरे साहिल से टकरा वापिस चली जाती है,
क्या मेरा तुझमे डूब जाना भी अच्छा नहीं लगता,
तुझसे हमारी मोह्हबत ने सिर्फ वफ़ा ही की है,
पर लगता है तुझे हमारी मोह्हबत का यह कारनामा भी अच्छा नहीं लगता....



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