फितरत ए मोह्हबत बदल न पाए,
दिल्लगी को हम रोक न पाए,
खुद को लाख संभाला, पर संभल न पाए,
उनके इज़हार ए मोह्हबत पर इनकार कर न पाए,
न जाने क्या जादू था उनकी आँखों में,
की उनकी आँखों से नजरे हटा न पाए,
गुनाह ए इश्क, फिर कर बेठे हम,
यारों हम सुधर न पाए,
अब इश्क किया है, तो उसे निभाएंगे भी,
फिर क्यों न चाहे यह ज़माना ही रूठ जाये.....
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